मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

पर्यटन-भगवान जगन्नाथ की भूमि - ओडिशा

सामान्यतः ओडिशा को भगवान जगन्नाथ की भूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं और राज्य इनका दोहन भी कर रहा है। नीलमाधब की कहानी को कंटीलो के साथ जोड़ना काफी उत्तेजनापूर्ण है। ऊषाकोठी के हरे वन एवं सिमिलिपाल के जंगलों में पक्षियों की चहचहाहट इस क्षेत्र की ओर लोगों को आकर्षित करते हैं। भुवनेश्वर से बीस किलोमीटर की दूरी पर बने नंदनकानन के वन हर उम्र के लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। शेर सफारी एवं बाघ सफारी यहां के मुख्य आकर्षणों में से एक हैं। वन्यजीवन को पसंद करने वालों के लिए महानदी का टिकरपड़ा मगरमच्छ अभयारण्य अपनी ओर खींचता है। वर्ष में दो बार ओलिव रिडले कछुए गहिरमाथा में आकर अंडे देते हैं तथा उनसे बच्चे निकलने के बाद यहां से चले जाते हैं। ओडिशा की चिलका झील एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है। यहां आप अनगिनत प्रवासी पक्षियों को आसानी से देख सकते हैं। हनीमून टापू और नाश्ता टापू जैसे प्रसिद्ध टापू इसी झील की शोभा बढ़ा रहे हैं। डॉल्फिन मछलियों की अटखेलियां इस झील की खूबसूरती में चार चांद लगाते हैं। यहां के तेज प्रवाह वाले बारहमासी झरने बागरा, दुदुमा, हरिशंकर, नृसिंहनाथ, प्रधानपाट, खंडाधार, बरेहीपानी और जोरंदा यहां के आकर्षण को और भी बढ़ा देते हैं। इनसे बनने वाले मनोरम दृश्य को देखने के लिए पर्यटक काफी दूर-दूर से आते हैं। ग्रीष्मकाल में यहां आने वाले पर्यटक झरनों को देखकर अपनी सारी थकावट को भूल जाते हैं। इतना ही नहीं ठंड के मौसम में यहां के गर्म पानी के अटरी, तप्तपानी, दुलाझरी और तारबालो झरने लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। ओडिशा के समुद्री तटों की लंबाई लगभग 400 किमी है, जो चंदनेश्वर से गोपालपुर तक फैला हुआ है तथा इसे विश्व का सबसे बडा समुद्री किनारा होने का सम्मान हासिल है। बालासोर जिले का चांदीपुर समुद्री तट भी अपनी एक विशिष्ठ पहचान रखता है। पर्यटन स्थलों के साथ ही ओडिशा अपने विभिन्न कलात्मक एवं सांस्कृतिक विरासतों, मेले तथा उत्सवों के लिए भी प्रसिद्ध है। इन उत्सवों में पुरी की रथयात्रा तो पूरे विश्व में विख्यात है। बरगढ़ की धनु यात्रा, संबलपुर की सीतला षष्ठी, चंदनेश्वर का नीला पर्व और बारीपदा का छोउ नृत्य भी यहां की प्रसिद्धि में बराबर का योगदान देते हैं। भुवनेश्वर में पर्यटन मंदिरों का यह शहर उत्तर में हावड़ा और दक्षिण में चेन्नई से मुख्य रेल मार्ग से जुड़ा हुआ है।यहां आने वाले लोगों के लिए भुवनेश्वर विविधाताओं, एकता और मनोरंजक स्थान है। पुराने और नए का यहां बेजोड़ मिश्रण देखने को मिलता है और इस शहर का 2500 सालों का एक लंबा इतिहास रहा है। सभी धर्म एवं और संप्रदाय के लोग यहां भाईचारे के साथ रहते हैं लिंगराज मंदिर, शिव आराधना का केंद्र है। अनंत वासुदेव मंदिर 1278 ईसवी (4 किमी) बिंदु सरोवर के पूर्वी किनारे पर बना यह मंदिर वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है, 18.29 मी ऊंचे मंदिर में विष्णु की प्रतिमा है। भास्करेश्वर मंदिर (6 किमी), इस छोटे मंदिर की सबसे बड़ी खासियत इसकी सीढियां हैं और ऊंचाई पर बना पवित्र पवित्र लिंग है। इसकी ऊंचाई जमीन से 3 मी लंबी है। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह लिंग संभवतः एक खड़ा स्तंभ है। बिंदु सरोवर (4 किमी), लिंग राज मंदिर के उत्तर में स्थित है। इस विशाल सरोवर की लंबाई लगभग 400 मी और चौड़ाई 230 मी है। भक्तों का ऐसा विश्वास है कि इसमें भारत की सभी पवित्र नदियों का जल आकर मिलता है और इसमें उनको शुद्ध करने की क्षमता है। ब्रह्ममेश्वर मंदिर 1061 ईसवी (6.5 किमी), सोमवंशी राजा उद्योत्तकेसरी की मां कलावती ने साम्राज्य के आठरहवें साल पर करवाया था, यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। बी.के कला एवं शिल्प महाविद्यालय (10 किमी), यह महाविद्यालय कला और शिल्प की कई विधाओं में उच्च स्तरीय शिक्षा प्रदान करता है। यहां मुख्य रूप से लकड़ी पर नक्काशी, ताड़ पत्र कला, मूर्तिकला, मृदा काला, व्यावसायिक कला, ग्राफिक कला, रेखा चित्र और पेंटिंग विषयों में डिग्री दी जाती है। यह महाविद्यालय खांदागिरी मे स्थित है। धाऊली (9 किमी) दया नदी के दक्षिणी किनारे में एक छोटी सी पहाड़ी है। इसके मध्य में फैले हरे-भरे मैदान इसके बाहरी हिस्सों तक फैले हैं। 261 ईसा पूर्व में राजा अशोक ने कलिंग के विरुद्ध अंतिम युद्ध लड़ा था। ऊपर पुरी में पर्यटन पुरी को धरती के स्वर्ग के रूप में वर्णित किया जाता है। पूजा अर्चना और घूमने-फिरने की दृष्टि से पुरी एक आदर्श स्थान है। पुरी में जगन्नाथ मंदिर के अलावा कई और छोटे मंदिर में स्थित हैं। यहां दुनिया का बेहतरीन समुद्रीय तट है। आई टोटा (1.5 किमी),गुंदीचा मंदिर के बाईं ओर स्थित है जहां रथ यात्रा के दौरान चैतन्य रुकते थे। अंगीरा बाटा (3.5 किमी) बरगद की छांव के नीचे, जो अंगीरा बाटा के नाम से जाना जाता है, जगन्नाथ मंदिर के पूर्व में स्थित है यह चारों ओर से दीवारों से घिरा हुआ है और इसका संबंध ज्ञानी अंगीरा से है। अन्नपूर्णा थियेटर (3 किमी),नौंवीं शताब्दी ईसवी में मुरारी मिश्रा ने पहली बार पुरी में अपने नाटक को रिकॉर्ड किया । यह प्राचीन थियेटर ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया, सत्तर साल पुराने इस थियेटर हाउस को आज भी पुरी में देखा जा सकता है। अर्धशनि (3 किमी), जगन्नाथ मंदिर से करीब 3 किमी की दूरी पर ग्रेंड ट्रंक रोड पर अर्धशनि या मौसी मां का य मंदिर स्थित है, जो आंशिक रूप से सफेद रंग का है। यहां सुभद्रा की भी पूजा की जाती है। अष्ट शंभू (4.5 किमी) छोटे आकार का यह मंदिर टिहाडी शाही में है,जहां आठ शिव का लिंगों को अमूल्य पत्थरों से बनाया गया है। अलग-अलग दिशाओं से देखने पर यह कई रंगों में नजर आता है। अथारनाला (3 किमी), तेरहवीं शताब्दी में गंगा साम्राज्य के भानू देबा ने 18 मेहराबों वाले ब्रिज या अथारनाला का निर्माण करवाया, जो वास्तुकला के क्षेत्र में मील का पत्थर है। इसे पत्थरों से तैयार किया गया था जिसका उपयोग आज भी पुरी मे लोग आने-जाने के लिए करते हैं। अरविंदो धाम (4 किमी), हाल ही में स्थापित यह संस्थान बीसवीं शताब्दी के महान भारतीय ज्ञानी अरविदों की पद्धतियों को लोकप्रिय बना रही है। इसमें एक छोटा पुस्तकालय है। इसकी इमारत काफी प्रभावशाली है,जिसमें दक्षिण के स्वर्ग द्वार से प्रवेश किया जा सकता है। बाटा लोकनाथ (5 किमी),स्वर्ग द्वार माऱग्‍ पर स्थित यह एक शिव मंदिर है, जहां मां काली की भी पूजा होती है। बाटामंगला (5 किमी),पुरी-भुवेनश्वर मार्ग पर अथारनाला से करीब 3 किमी की दूरी पर स्थित यह बाटामंगला का मंदिर है। यहां आने वाले ज्यादातर भक्त पुरी तक की सुरक्षित यात्रा की कामना लेकर आते हैं। बाउली मठ (3.5 किमी), गुरु नानक द्वारा खोदा गया कुंआं देडासुर भाई बोहू आज भी बाउली मठ में मौजूद है, इसमें सालभर लोगों का आना-जाना लगा रहता है। बेदी महावीर (2.5 किमी), समुद्र किनारे बसे इस मंदिर में रामभक्त हनुमान की पूजा होती है। भारत सेवाश्रम (4किमी) स्वर्ग द्वार के निकट बसा हुआ है, जो रथ यात्रा के दौरान अपनी भूमिका निभाता है। भृगु आश्रम (3किमी), यह आश्रम अथारनाला के निकट बना हुआ है, जो ज्ञानी भृगु से संबंधित है। चाखी खुंती आवास (4 किमी), जगन्नाथ मंदिर का संत चाखी खुंती ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था। खुंतिया रानी लक्ष्मीबाई के पारिवारिक गुरु थे। चक्र तीर्थ (2 किमी), समुद्र तटीय क्षेत्र में बने इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ की अर्धांग्नी लक्ष्मी की आराधना की जाती है। छोटा होने के बावजूद इस मंदिर में बने लक्ष्मी और नरसिंह की प्रतिमाएं दर्शनीय हैं। चतुरधाम वेद भवन (4.5 किमी), युवाओं को इस विद्यालय में वेदों की शिक्षा दी जाती है। यहां पढ़ने वाले छात्रों को वेद कंठस्थ हैं। यहां आने वाले लोग पारंपरिक वेद प्रक्रिया को भी सहज रूप में देख सकते हैं। सूर्य मंदिर, कोणार्क स्थित तेरहवीं शताब्दी में राजा नरसिंह देव द्वारा निर्मित यह सूर्य मंदिर वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। पूरे मंदिर को भगवान सूर्य की सवारी रथ के रूप में तैयार किया गया, जिसमें सात घोड़े भी हैं। वैदिक काल से ही सूर्य देवता भारत के लोगों के लिए पूजनीय रहे हैं। मेलककदमपुर शिव मंदिर, कुलोतुंगा चोला प्रथम (1075-1120) के शासनकाल में रथ के आकार मे बनाया गया है। इस तरह का यह अपने आपमें सबसे पुराना मंदिर है जो राज्य में आज भी पूरी तरह सुरक्षित है। नवग्रुहा मंदिर में पत्थरों से निर्मित है, जिसमें नौ देवताओं की पूजा की जाती है। यह मंदिर मध्यकाल की वास्तुकला के अनुसार बनाया गया है और यह ओडिशा के अधिकतर मंदिरों से मिलता-जुलता है। सूर्य मंदिर में भी नवग्रुहा का एक पत्थर रखा गया है, जिसे काफी सुंदर तरीके से सजाया गया है।

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